Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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यह मंदिर ठाकुरजी का था, बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊँची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन-चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस-पाँच आदमी यहाँ लेटे या बैठे रहते थे। एक पक्का कुआँ भी था, जिस पर जगधर नाम का एक खोमचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयाँ, मूँगफली, रामदाने के लड्डू आदि रखता था। राहगीर आते, उससे मिठाइयाँ लेते, पानी निकालकर पीते और अपनी राह चले जाते। मंदिर के पुजारी का नाम दयागिरि था, जो इसी मंदिर के समीप एक कुटिया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थे, भजन-कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे और निर्वाण को ढोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुँअर भरतसिंह के यहाँ मासिक वृत्ति बँधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। नि:स्पृह आदमी था, लोभ छू भी नहीं गया था, संतोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्-भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी-सी संगत थी। आठ-नौ बजे रात को, दिन भर के काम-धंधो से निवृत्ता होकर, कुछ भक्तजन जमा हो जाते थे, और घंटे-दो घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढोलक बजाने में निपुण था, बजरंगी करताल बजाता था, जगधर को तँबूरे में कमाल था, नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मँजीरेवालों की संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकता, वह मँजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढोल, मँजीरे, करताल, सारंगी, तँबूरा सभी में समान रूप से अभ्यस्त था, और गाने में तो आस-पास के कई मुहल्लों में उसका जवाब न था। ठुमरी-गजल से उसे रुचि न थी। कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि संतों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्रहीन मुख अति आनंद से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते-गाते मस्त हो जाता, तन-बदन की सुधि न रहती। सारी चिंताएँ, सारे क्लेश भक्‍ति -सागर में विलीन हो जाते थे।

सूरदास मिट्ठू को लिए पहुँचा, तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गए थे, केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा-तुमने बड़ी देर कर दी, आधा घंटे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ माँगकर खिला दिया करते।
दयागिरि-यहाँ चला आया करे, तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाए।
सूरदास-तुम्हीं लोगों का दिया खाता है या और किसी का? मैं तो बनाने-भर को हूँ।
जगधर-लड़कों को इतना सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते हो, जैसे नन्हा-सा बालक हो। मेरा विद्याधर इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।
सूरदास-बिना माँ-बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हाँ, क्या होगा?
दयागिरि-पहले रामायण की एक चौपाई हो जाए।
लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले। सुर मिला और आधा घंटे तक रामायण हुई।
नायकराम-वाह सूरदास वाह! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।
बजरंगी-मेरी तो कोई दोनों आँखें ले ले, और यह हुनर मुझे दे दे, तो मैं खुशी से बदल लूँ।
जगधर-अभी भैरों नहीं आया, उसके बिना रंग नहीं जमता।
बजरंगी-ताड़ी बेचता होगा। पैसे का लोभ बुरा होता है। घर में एक मेहरिया है और एक बुढ़िया माँ। मुआ रात-दिन हाय-हाय पड़ी रहती है। काम करने को तो दिन है ही, भला रात को तो भगवान् का भजन हो जाए।
जगधर-सूरे का दम उखड़ जाता है, उसका दम नहीं उखड़ता।
बजरंगी-तुम अपना खोंचा बेचो, तुम्हें क्या मालूम, दम किसे कहते हैं। सूरदास जितना दम बाँधते हैं, उतना दूसरा बाँधो, तो कलेजा फट जाए। हँसी-खेल नहीं है।
जगधर-अच्छा भैया, सूरदास के बराबर दुनिया में कोई दम नहीं बाँध सकता। अब खुश हुए।
सूरदास-भैया, इसमें झगड़ा काहे का? मैं कब कहता हूँ कि मुझे गाना आता है। तुम लोगों का हुक्म पाकर, जैसा भला-बुरा बनता है, सुना देता हूँ।
इतने में भैरों भी आकर बैठ गया। बजरंगी ने व्यंग करके कहा-क्या अब कोई ताड़ी पीनेवाला नहीं था? इतनी जल्दी क्यों दूकान बढ़ा दी?
ठाकुरदीन-मालूम नहीं, हाथ-पैर भी धोए हैं या वहाँ से सीधो ठाकुरजी के मंदिर में चले आए। अब सफाई तो कहीं रह ही नहीं गई।
भैरों-क्या मेरी देह में ताड़ी पुती हुई है?
ठाकुरदीन-भगवान् के दरबार में इस तरह न आना चाहिए। जात चाहे ऊँची हो या नीची; पर सफाई चाहिए ज़रूर।
भैरों-तुम यहाँ नित्य नहाकर आते हो?
ठाकुरदीन-पान बेचना कोई नीच काम नहीं है।
भैरों-जैसे पान, वैसे ताड़ी। पान बेचना कोई ऊँचा काम नहीं है।
ठाकुरदीन-पान भगवान् के भोग के साथ रखा जाता है। बड़े-बड़े जनेऊधारी, मेरे हाथ का पान खाते हैं। तुम्हारे हाथ का तो कोई पानी नहीं पीता।
नायकराम-ठाकुरदीन, यह बात तो तुमने बड़ी खरी कही। सच तो है, पासी से कोई घड़ा तक नहीं छुआता।
भैरों-हमारी दूकान पर एक दिन आकर बैठ जाओ, तो दिखा दूँ, कैसे-कैसे धर्मात्मा और तिलकधारी आते हैं। जोगी-जती लोगों को भी किसी ने पान खाते देखा है? ताड़ी, गाँजा, चरस पीते चाहे जब देख लो। एक-से-एक महात्मा आकर खुशामद करते हैं।
नायकराम-ठाकुरदीन, अब इसका जवाब दो। भैरों पढ़ा-लिखा होता, तो वकीलों के कान काटता।
भैरों-मैं तो बात सच्ची कहता हूँ, जैसे ताड़ी वैसे पान, बल्कि परात की ताड़ी को तो लोग दवा की तरह पीते हैं।
जगधर-यारो, दो-एक भजन होने दो। मान क्यों नहीं जाते ठाकुरदीन? तुम्हें हारे, भैरों जीता, चलो छुट्टी हुई।

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